top of page

राम चरित मानस के कुछ अमृत वचन

1. देवि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥

2. जहां सुमति तहां संपति नाना। जहां कुमति तहां बिपति निदाना॥

3. तुलसी साथी विपति के, विद्या विनय विवेक। साहस सुकृति सुसत्यव्रत, राम भरोसे एक॥

4. तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोए। अनहोनी होनी नही, होनी होए सो होए॥

5. हरि ब्यापक सर्बत्रा समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥

6. जा की रही भावना जैसी।  प्रभु मूरत देखी तिन्ह तैसी॥

7. जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलई न कछु संदेहू॥

8. का बरषा जब कृषी सुखानी। समय चूकि पुनि का पछतानी॥

9. टेढ़ जानि सब बंदइ काहू। बक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू॥

   ऊंच निवासु नीचि करतूती॥। देखि न सकहि पराइ बिभूती॥

10. रघुकुल रीत सदा चलि आई। प्रान जाई पर वचन न जाई॥

11. जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी॥ सो नृपु अवसि नरक अधिकारी॥

12. जिन्हं के कपट दम्भ नहि माया। तिन्ह के हृदय बसहु रघुराया॥

13 राम भगत प्रिय लागहि जेही। तेहि उर बसहु सहित वैदेही॥

14. रामहि केवल प्रेम  पियारा। जानि लेहु जो जाननि हारा॥

15. अस को जीव जन्तु जग माहीं। जेहि रघुनाथ प्राणप्रिय नाहीं॥

16. राम राम कहि जे जमुहाहीं। तिन्हहिं न पाप पुंज समुहाहीं॥

17. करम प्रधान बिस्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा।

18. सचिव बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस। राज धर्म तन तीनि कर होई बेगिहीं नास॥

19. परहित बस जिन्ह के मन माहीं। तिन्ह कहुं जग दुर्लभ कछु नाहीं॥

20. सुनहु उमा ते लोग अभागी। हरि तजि होहिं विषय अनुरागी॥

21. मोरि सुधरिहि सो सब भांती। जासु कृपा नहि कृपा अघाती॥

22. भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा॥

23. राजिव नयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुख दायक॥

24. जो आनंद सिंधु सुख रासी। सीकर तें त्रौलोक सुपासी॥

25. दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान। तुलसी दया न छांड़िए, जब लग घट में प्राण॥

26. सो सुख धाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक विश्रामा॥

27. आवत ही हरषै नहीं नैनन नहीं सनेह। तुलसी तहां न जाइये कंचन बरसे मेह॥

28. काम क्रोध मद लोभ की, जौ लौं मन में खान।  तौ लौं पण्डित मूरखौं, तुलसी एक समान॥

29. तुलसी किएं कुसंग थिति, होहि दाहिने बाम। 30. सूर समर करनी करहिं, कहि न जनावहिं आपु।

बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु॥

31. तुलसी मीठे वचन ते सुख उपजत चहुं ओर। बसीकरन इक मंत्र है परिहरू वचन कठोर॥

32. राम नाम मनि दीप धरु जीह देहरी द्वार। तुलसी भीतर बाहरहु जौ चाहसि उजियार॥

33. सहज सुहृद गुरु स्वामि सिख। जो न करइ सिर मानि।

सो पछिताइ अधाइ उर। अवसि होइ हित हानि॥

34. मुखिया मुख सो चाहिए। खान पान कहुं एक। पालइ पोषइ सकल अंग। तुलसी सहित विवेक॥

35. तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ न चतुर नर। सुंदर केकहि पेखु वचन सुधा सम असन अहि।

37. मूढ तोहि अतिशय अभिमाना। नारी सिखावन करसि काना॥

38. जननी सम जानहि पर नारी। तिन्ह के मन शुभ सदन तुम्हारे।

39. बिना तेज के पुरूष की अवशि अवज्ञा होय। आगि बुझे ज्यो राख की आप छुवै सब कोय॥॥

40. सूर समर करनी करहिं, कहि न जनावहिं आपु। विद्यमान रन पाई रिपु कायर कथहिं प्रतापु॥

41. बचन बेष क्या जाजिए, मन मलीन नर नारि। सूपनखा मृग पूतना, दस मुख प्रमुख विचारि॥

42. एक अनीह अरूप अनामा, अज सच्चिदानन्द पर धामा।

ब्यापक विश्व रूप भगवाना, तेहिं धरि देह चरित कृत नाना॥

43 कठिन कुसंग कुपंथ कराला। तिन्ह के बचन बाघ हरि ब्याला॥

44. जद्यपी जग दारून दुख नाना। सब तें कठिन जाति अवमाना॥

45. रिपु तेजसी अकेल अपि, लघु करि गनिय न ताहु।

  अजहुं देत दुख रवि, ससिह सिर अवसेशित राहु॥

46. सुख संपति सुत सेन सहाई। जय प्रताप बल बुद्धि बडाई।

नित नूतन सब बाढत जाई। जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई॥

47. रिपु रूज पावक पाप प्रभु अहि गनिय न छोट करि।

48. भगति निरूपन बिबिध विधाना। क्षमा दया दम लता विताना।

   सम जम नियम फूल फल ज्ञाना। हरि पद रति रस बेद बखाना॥

49. सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गाबहि मुनि पुरान बुध भेदा।

   अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बश सगुन सो होई॥

50. कुपथ निवारि सुपथ चलावा। गुन प्रगटै अबगुन्हि दुरावा॥

51. देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई।

   विपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥

52. अनुचित उचित काजु किछु होउ। समुझि करिअ भल कह सब कोउ।

   सहसा करि पाछें पछिताही। कहहिं बेद बुध ते बुध नाही॥

53. कलिमल ग्रसे धर्म  सब लुप्त भए सदग्रंथ। दंभिहि निज मति  कल्पि करि प्रकट किए बहुपंथ॥


भये प्रगट कृपाला 

भए प्रगट कृपाला दीनदयाला,कौशल्या हितकारी ।हरषित महतारी, मुनि मन हारी,अद्भुत रूप बिचारी ।

लोचन अभिरामा, तनु घनस्यामा,निज आयुध भुजचारी ।भूषन बनमाला, नयन बिसाला,सोभा सिंधु खरारी ।

कह दुइ कर जोरी, अस्तुति तोरी,केहि बिधि करूं अनंता ।माया गुन ग्यानातीत अमाना,वेद पुरान भनंता ।

करुना सुख सागर, सब गुन आगर,जेहि गावहिं श्रुति संता ।सो मम हित लागी, जन अनुरागी,भयउ प्रगट श्रीकंता ।

ब्रह्मांड निकाया, निर्मित माया,रोम रोम प्रति बेद कहै ।मम उर सो बासी, यह उपहासी,सुनत धीर मति थिर न रहै ।

उपजा जब ग्याना, प्रभु मुसुकाना,चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै ।कहि कथा सुहाई, मातु बुझाई,जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै ।

माता पुनि बोली, सो मति डोली,तजहु तात यह रूपा ।कीजै सिसुलीला, अति प्रियसीला,यह सुख परम अनूपा ।

सुनि बचन सुजाना, रोदन ठाना,होइ बालक सुरभूपा ।यह चरित जे गावहिं, हरिपद पावहिं,ते न परहिं भवकूपा ।

भए प्रगट कृपाला दीनदयाला,कौशल्या हितकारी ।हरषित महतारी, मुनि मन हारी,अद्भुत रूप बिचारी |

 

 

bottom of page