( पंजी. यूके 065014202100596 )
नमो दुर्गतिनाशिन्यै मायायै ते नमो नमः, नमो नमो जगद्धात्र्यै जगत कर्ताये नमो नमः,
नमोऽस्तुते जगन्मात्रे कारणायै नमो नमः, प्रसीद जगतां मातः वाराह्यै ते नमो नमः ।
श्री राम स्तवन

श्री रामचन्द्र कृपालु भजमन हरण भवभय दारुणं।
नवकंज लोचन कंजमुख करकंज पद कंजारुणं ॥1॥
हे मन! तू कृपालु श्री रामचन्द्र जी का स्मरण कर। वे इस संसार के जन्म-मरण रूपी दारुण को दूर करने वाले हैं। उनके नेत्र, मुख-हाथ और चरण भी कमल के सदृश हैं॥1॥
कन्दर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरद सुन्दरं।
पट पीत मानहु तड़ित रूचि शुचि नौमि जनक सुतावरं॥2॥
उनके सौन्दर्य की छटा अनगित कामदेवों से बढ़कर है। उनके शरीर का वर्ण नवीन नीले जलयुक्त मेघ के जैसा मनमोहक सुन्दर है। पीले वस्त्र उस मेघ रूपी शरीर में मानो बिजली के समान चमक रहे हों। ऐसे पावनरूप जानकीपति श्री राम जी को मैं नमस्कार करता हूं॥2॥
भज दीन बन्धु दिनेश दानव दैत्य वंश निकन्दनं।
रघुनन्द आनन्द कन्द कोशल चन्द दशरथ नन्दनं॥3॥
हे मन तू दीन-दुखियों के बन्धु, सूर्य के समान तेजस्वी, दानव और दैत्यों के वंश का नाश करने वाले, कोशल-देश के आकाश में निर्मल चन्द्रमा के समान, संपूर्ण आनन्द के स्त्रोत हैं। दशरथ नन्दन श्री राम का भजन कर॥3॥
सिर मुकुट कुण्डल तिलक चारू उदारु अङ्ग विभूषणं।
आजानु भुज शर चाप धर संग्राम जित खर दूषणं॥4॥
जिनके मस्तक पर रत्नजड़ित मुकुट, कानों में कुण्डल, कपाल पर तिलक और प्रत्येक अंग में सुन्दर आभूषण सुशोभित हो रहे हैं। जिनकी भुजाएं घुटनों तक लम्बी हैं अर्थात शक्तिशाली हैं। जो धनुष-बाण लिये हुए हैं, जिन्होंने संग्राम में खर-दूषण को जीत लिया है॥4॥
इति वदति तुलसी दास शंकर शेष मुनि मन रंजनं।
मम हृदय कंजनिवास कुरु कामादि खल दल गंजनं॥5॥
जो शिव, शेष और मुनियों के मन को प्रसन्न करने वाले और काम, क्रोध, लोभादि दोषों का नाश करने वाले हैं, तुलसीदास प्रार्थना करते हैं कि ऐसे श्री रघुनाथ जी मेरे हृदय कमल में सदा निवास करें॥5॥
मनु जाहि राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुन्दर सांवरो।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥6॥
जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है वही स्वभाव से सहज, सुन्दर सांवले श्री राम तुम्हें प्राप्त होंगे। वे जो दया के धाम और सर्वज्ञ हैं तथा तुम्हारे शील और स्नेह को जानते हैं॥6॥
एही भांति गौरी असीस सुनी सिय सहित हिय हरषीं अली।
तुलसी भवानी पूजि पुनि-पुनि मुदित मन मंदिर चली॥7॥
इस प्रकार श्री गौरी जी का आशीर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सभी सखियां हृदय में हर्षित हुईं। तुलसीदासजी कहते हैं, भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल को लौट चलीं॥7॥
जानी गौरी अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥8॥
गौरी जी को अनुकूल जानकर सीता जी के हृदय में जो हर्ष हुआ उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सुन्दर मंगलों की सूचना देने वाले लक्षण के रूप में उनके बांये अंग फड़कने लगे॥8॥
॥सिया राम चन्द्र की जय॥
-गोस्वामी तुलसीदास
