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श्री जगन्नाथ (श्री कृष्ण) की आरती

यह आरती श्री गुरु नानक देव जी द्वारा रचित है। उन्होंने इस आरती को 1508 में पुरी के श्री जगन्नाथ जी मंदिर में गाया था। इस आरती में वे समस्त ब्रह्मांड में व्याप्त ईश्वर के विराट स्वरुप की स्तुति कर रहे है। आरती के प्रारंभिक बोल एवं अर्थ कुछ इस प्रकार है-

गगन मै थालु, रवि चंदु दीपक बने, तारिका मंडल जनक मोती।

धूपु मल आनलो, पवणु चवरो करे, सगल बनराइ फूलंत जोती॥

कैसी आरती होइ, भव खंडना तेरी आरती॥

अनहता सबद वाजंत भेरी।

सहस तव नैन नन नैन हहि तोहि कउ सहस मूरति नना एक तोही॥

सहस पद बिमल नन एक पद गंध बिनु सहस तव गंध इव चलत मोही॥

सभ महि जोति जोति है सोइ, तिस दै चानणि सभ महि चानणु होइ॥

गुर साखी जोति परगटु होइ। जो तिसु भावैसु आरती होइ॥

हरि चरण कवल मकरंद लोभित मनोअनदिनु मोहि आही पिआसा॥

क्रिपा जलु देहि नानक सारिंग कउ होइ जा ते तेरैनाइ वासा॥

गगन (आकाश रूपी आरती के थाल में सूर्य और चंद्र दीपक के समान प्रज्ज्वलित हैं, तारा मंडल मोतियों की भांति शोभायमान है। मलय पर्वत से आती चंदन की सुगंध ही धूप है, वायु चंवर झूला रही है, समस्त वनस्पति तुम्हारी आरती के निमित्त फूल की भांति अर्पित है। दैवीय ध्वनि भेरी की तरह बज रही है। हे प्रभो! तुम्हारी विराटता का वर्णन कैसे किया जा सकता है! बिना आंख के तुम्हारी हजारों आंखें हैं, तुम्हारे हजारों रूप हैं, तोभी एक भी नहीं। हजारों चरण कमल पर एक भी नहीं। एक भी नाक नहीं, लेकिन हजारों हैं, तुम्हारी यही क्रीडा मुझे आकर्षित किए है। सभी में जल रही वह ज्योति हो तुम। गुरुआंे के शिक्षा से जो ज्योति जलती हैं जो तुम्हें भावे वही आरती तुम्हें अर्पित है। मेरा मन दिन- रात भगवान के चरण कमलों का प्यासा है। हे प्रभु अपनी दया का जल मुझ पर छिड़को जिससे कि सारस रूपी नानक तेरे पास आके रह सके।)

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