( पंजी. यूके 065014202100596 )
नमो दुर्गतिनाशिन्यै मायायै ते नमो नमः, नमो नमो जगद्धात्र्यै जगत कर्ताये नमो नमः,
नमोऽस्तुते जगन्मात्रे कारणायै नमो नमः, प्रसीद जगतां मातः वाराह्यै ते नमो नमः ।
तंत्रोक्त् रात्रि सूक्त वह स्तुति है जिसे ब्रह्मा जी ने श्री दुर्गा के आह्वान हेतु गाया था। यह श्री दुर्गा सप्तशती के पहले अध्याय में आई है। जब भगवान विष्णु योगनिद्रा में थे तो मधु व कैटभ नामक दो भयंकर असुर श्री विष्णु के कान के मैल से उत्पन्न हुए (असुरों का उद्भव भी भगवान से ही है, कान का मैल एक नकारात्मक मार्ग में जाने वालों की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है)। वे दोनों ब्रह्मा जी की हत्या करने को तत्पर हुए। उनकी उग्रता को देखकर ब्रह्मा जी ने भगवती की यह स्तुति की है जो देवी की महिमा का वर्णन करती है। इसे प्रायः दुर्गा सप्तशती पाठ के प्रारंभ में गाया जाता है। इसका नित्य पाठ भी किया जाता है।
विश्वेश्वरीं जगद्धात्रीं स्थिति संहार कारिणीम्। निद्रां भगवतीं विष्णोर तुलां तेजसः प्रभुः॥1॥
हे! विश्व की ईश्वरी, इस जगत की आधार, संरक्षक व संहारक, कल्याणकारी, अतुलनीय शक्ति वाली जो श्री विष्णु की योग निद्रा है।
ब्रह्मोवाच (ब्रह्मा बोले) ॥1॥
(उस भगवती के प्रति ब्रह्मा बोले)
त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वषट्कारः स्वरात्मिका। सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रत्मिका स्थिता॥2॥
तुम्हीं ईश्वर का तर्पण तथा स्वाहा, तुम्हीं स्वधा (पितरों का तर्पण) हो, तुम्हीं पवित्र आहुति मंत्र हो। मंत्रों के स्वर भी तुम्हारे ही स्वरूप हैं। तुम्हीं जीवन-दायिनी सुधा हो। नित्य अक्षर ॐ में अकार, उकार, मकार-इन तीन अक्षरों के रूप में तुम्ही स्थित हो॥2॥
अर्धमात्रस्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः। त्वमेव सन्ध्या सावित्री त्वं देवि जननी परा॥3॥
तथा इन तीन अक्षरों के अतिरिक्त जो बिन्दुरूपा नित्य अर्धमात्र है, जिसका विशेषरूप से उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम्ही हो। तुम्हीं सन्ध्या, तुम्हीं गायत्री मंत्र, तुम्हीं समस्त देवी-देवताओं की जननी हो॥3॥
त्वयैतद्धार्यते विश्वं त्वयैतत् सृज्यते जगत। त्वयेतत् पाल्यते देवि ! त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा॥4॥
तुम्हीं इस ब्रह्माण्ड को धारण करती हो, तुमसे ही इस जगत की सृष्टि होती है। तुम्हीं सबकी पालनहार हो और कल्प के अन्त में सभी तुममें समा जाते हैं॥4॥
विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने। तथा संहृतिरूपान्ते जगतोऽस्य जगन्मये॥5॥
इस जगत की उत्पत्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो और पालनकाल में स्थितिरूपा हो। हे जगन्मयी मां! तुम कल्पान्त के समय संहार रूप धारण करने वाली हो॥5॥
महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृतिः। महामोहा च भवती महादेवी महासुरी॥6॥
तुम्हीं महाविद्या, तुम्हीं महामाया, तुम्हीं महामेधा, तुम्हीं महास्मृति हो, तुम्हीं महामोह, महादेवी तथा महासुरी हो॥6॥
प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्य गुणत्रायविभाविनी। कालरात्रिर्महरात्रिर्मोहारात्रिश्च दारुणा॥7॥
तुम्हीं तीनों गुणों (सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण) को उत्पन्न करने वाली सबकी प्रकृति हो। भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम्हीं हो॥7॥
त्वं श्रीस्त्वमीश्वरी त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा। लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं शान्तिः क्षान्तिरेव च॥8॥
तुम्हीं श्री, तुम्हीं ईश्वरी, तुम्हीं और तुम्हीं बोधस्वरूपा बुद्धि हो। लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम्हीं हो॥8॥
खड्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा। शङ्खिनी चापिनी बाणभुशुण्डी परिघायुधा॥9॥
तुम खड्गधारिणी, घोर शूलधारिणी तथा गदा और चक्र धारण करने वाली हो। तुम शंख धारण करने वाली, धनुष-वाण धारण करने वाली तथा परिघ नामक भयानक अस्त्र धारण करती हो॥9॥
सौम्या सौम्यतराह्मशेष सौम्येभ्यस त्वतिसुन्दरी। परापराणां परमा त्वमेव परमेश्वरी॥10॥
तुम सौम्य और सौम्यतर हो। इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य और सुन्दर पदार्थ हैं उन सबकी अपेक्षा तुम अधिक सुन्दर हो और लौकिक तथा पारलौकिक परमेश्वरी तुम्हीं हो॥10॥
यच्च किंचित् क्वचित् वस्तु सदसद्वा खिलात्मिके। तस्य सर्वस्य या शाक्तिः सा त्वं किं स्तूयसे तदा॥11॥
सर्वस्वरूपे देवि! कहीं भी सत्-असत् रूप जो कुछ वस्तुएं हैं और उन सबकी जो शक्ति है, वह भी तुम्हीं हो, ऐसी स्थिति में तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है?॥11॥
यया त्वया जगतस्रष्टा जगत् पात्यत्ति यो जगत्। सोऽपि निद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः॥12॥
जो इस जगत की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं। उनको भी, जब तुमने निद्रा के अधीन कर दिया है, हे महेश्वर! तब तुम्हारी स्तुति करने में कौन समर्थ हो सकता है?॥12॥
विष्णुः शरीरग्रहणमहमीशान एव च। कारितास्ते यतोऽतस्त्वां कः स्तोतुं शक्तिमान् भवेत्॥13॥
मुझको (ब्रह्मा को), विष्णु को और शिव को भी तुमने ही शरीर धारण कराया है। अतः तुम्हारी स्तुति करने की शक्ति किसमें है?॥13॥
सा त्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवि संस्तुता। मोहयैतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ॥14॥
देवि! तुम तो अपने इन उदार प्रभावों से ही प्रशंसित हो। ये जो दो दुर्धर्ष असुर मधु और कैटभ हैं, इन दोनों को मोह-माया में डाल दो॥14॥
प्रबोधं च जगत्स्वामी नीयतां अच्युतो लघु। बोधश्च क्रियतामस्य हन्तुमेतौ महासुरौ॥15॥
जगत के स्वामी श्री विष्णु को शीघ्र जगा दो तथा उनके भीतर इन दोनों असुरों का वध करने की बुद्धि उत्पन्न कर दो॥15॥
