( पंजी. यूके 065014202100596 )
नमो दुर्गतिनाशिन्यै मायायै ते नमो नमः, नमो नमो जगद्धात्र्यै जगत कर्ताये नमो नमः,
नमोऽस्तुते जगन्मात्रे कारणायै नमो नमः, प्रसीद जगतां मातः वाराह्यै ते नमो नमः ।
विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद के दशम् मण्डल में आए ये अलौकिक सूक्त श्री दुर्गा माता की महिमा का वर्णन करते हैं। ये सूक्त वाक् नामक ऋषिका को ब्रह्म साक्षात्कार के फलस्वरूप आत्मज्ञान से प्राप्त हुए, इसीलिए इन्हें आत्म सूक्त भी कहते हैं। ये सूक्त व्यक्ति के भीतर आत्म शक्ति के जागरण से परम ऐश्वर्य प्राप्त करने का संदेश भी देते हैं। इन महान ऋचाओं में वाक्देवी को श्री दुर्गा बताती हैं कि वे कौन हैं। सामान्यतः देवी सूक्त का पाठ चण्डी पाठ के अन्त में किया जाता है। इन सूक्तों के पाठ से वहीं फल मिलता है जो चण्डी पाठ से प्राप्त होता है। इन सूक्तों का अर्थ बहुत गूढ़ है तथापि यहां गीता प्रेस आधारित अनुवाद उद्धृत किया गया है।
अहं रुद्रे भिर्वसुभिर्श्च राम्यह मादित्यैरुत विश्वदेवैः।
अहं मित्रवरुणोभा बिभर्म्यह मिन्द्राग्नी अहम श्विनोभा॥1॥
मैं ब्रह्म स्वरूप हूं, मैं रुद्र, वसु, आदित्य और विश्वदेवता के रूप में विचरण करती हूं, मैं ही ब्रह्माण्ड के सभी रूपों में प्रकाशमान हो रही हूं। मैं ही ब्रह्मरुप से मित्र और वरुण दोनों को धारण करती हूं। मैं ही इन्द्र और अग्नि का आधार हूं। मैं रात व दिन का कारण हूं, सूर्य में प्रकाश हूं, मैं ही दोनों अश्विनी कुमारों (देवताओं) को धारण-पोषण करती हूं॥1॥
अहं सोममाहनसं बिभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम्।
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते॥2॥
मैं ही शत्रुनाशक, दोष-निवर्तक, परम आल्हादमयी, यज्ञगत सोम, चन्द्रमा, मन, प्राण, वायु तथा कल्याण कर्ता हूं। मैं ही त्वष्टा, पूषा और भग को पोषित करती हूं। जो भक्त देवताओं को तृप्त करने के लिए यज्ञ में हविष्य अपर्ण करते हैं, उन्हें लोक-परलोक में सुखकारी फल देनेवाली मैं ही हूं॥2॥
अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्।
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम्॥3॥
मैं ही राष्ट्री अर्थात सम्पूर्ण अस्तित्व की ईश्वर हूं। मैं उपासकों को उनके अभीष्ट वसु-धन प्राप्त कराने वाली ऐश्वर्य हूं। ज्ञानीजन मुझे ही अपनी आत्मा के रूप में अनुभव करते हैं। जिनके लिए यज्ञ किये जाते हैं उनमें मैं हूं। सम्पूर्ण प्रपंच के रूप में मैं ही अनेक होकर विराजमान हूं। सम्पूर्ण प्राणियों के शरीर में जीवन रूप में मैं अपने-आपको ही प्रविष्ट करती हूं। भिन्न-भिन्न स्थान, काल, वस्तु और व्यक्तियों में जो कुछ हो रहा है, किया जा रहा है, वह सब मुझमें, मेरे लिये ही किया जा रहा है। मैं विविध रूपों में विद्यमान हूं॥3॥
मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणिति यईं श्रृणोत्युक्तम्।
अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि॥4॥
जो भी कोई भोग भोगता है, वह मुझ भोक्त्री की शक्ति से ही भोगता है। जो देखता है, जो श्वासोच्छ्वास है और जो सुनने की शक्ति है, वे भी मुझसे ही है। जो लोग इस प्रकार से अन्तर्यामी रूप से स्थित मुझे नहीं जानते, वे अज्ञानी दीन, हीन, क्षय हो जाते हैं। मेरे प्यारे सखा! मेरी बात सुनो! मैं तुम्हारे लिए उस ब्रह्मात्मक वस्तु का उपदेश करती हूं, जो श्रद्धा-साधन से उपलब्ध होती है॥4॥
अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः।
यं कामये तं तमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम्॥5॥
मैं स्वयं ही ब्रह्मात्मक वस्तु का उपदेश करती हूं। देवताओं और मनुष्यों ने भी इसी का सेवन किया है। मैं स्वयं ब्रह्म हूं। मैं जिसकी रक्षा करना चाहती हूं, उसे सर्वश्रेष्ठ बना देती हूं, मैं चाहूं तो उसे सृष्टिकर्ता ब्रह्मा बना दूं और उसे बृहस्पति के समान सुमेधा बना दूं। मैं स्वयं अपने स्वरुप ब्रह्मभिन्न आत्मा का गान कर रही हूं॥5॥
अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ।
अहं जनाय समदं कृणोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश॥6॥
मैं ही ब्रह्मज्ञानियों के द्वेषी, हिंसारत, अहंकारी असुरों के वध करने के लिए रुद्र के संहारक धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाती हूं। मैं ही भक्तों के विरोधियों के साथ संग्राम करके उन्हें पराजित करती हूं। मैं ही द्युलोक और पृथ्वी में अन्तर्यामी रूप से प्रविष्ट हूं॥6॥
अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन् मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे।
ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि॥7॥
द्युलोक अथवा आदित्य रूप पिता का प्रसव मैं ही करती रहती हूं। दिव्य कारण-वारिरुप समुद्र, जिसके सम्पूर्ण प्राणियों में मैं हूं एवं जो पदार्थों का उदय-विलय होता रहता है, वह ब्रह्मचैतन्य मेरा निवासस्थान है। यही कारण है कि मैं सम्पूर्ण भूतों में अनुप्रविष्ट होकर रहती हूं॥7॥
अहमेव वात इव प्र वाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा।
परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना सं बभूव॥8॥
जैसे वायु किसी दूसरे से प्रेरित न होने पर भी स्वयं प्रवाहित होता है, उसी प्रकार मैं ही किसी दूसर के द्वारा प्रेरित और अधिष्ठित न होने पर भी स्वयं ही कारणरूप से सम्पूर्ण भूतरूप कार्यों का आरम्भ करती हूं। मैं आकाश से भी परे हूं और इस पृथ्वी से भी। मैं सम्पूर्ण विकारों से परे, असंग, निरपेक्ष, देश काल से परे, ब्रह्मचैतन्य हूं। अपनी महिमा से सम्पूर्ण जगत के रूप में मैं ही व्याप्त हूं॥8॥
इति देवी सूक्त।
